महाराणा प्रताप की अमर गाथा: अग्नि से जन्मे, अरावली में गूंजे

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1. महाराणा प्रताप: मेवाड़ का गौरव, राजपूत वीरता का प्रतीक

अरावली पहाड़ों की गर्मी में जन्मे, मेवाड़ की धरती पर पले-बढ़े, वीरता के अनोखे किस्से गढ़ने वाले, वो थे महाराणा प्रताप! उनके नाम से ही राजपूत परंपरा की शान, स्वतंत्रता की ज्वाला, और अजेय शौर्य की गूंज सुनाई देती है। आइए, आज उन्हीं के जीवन, उनकी वीरता, और उनके अमर संघर्ष की गाथा को सुलझाते हैं, बिल्कुल ऐसे ही जैसे हम आपस में बात कर रहे हैं।

वंश और विरासत का गौरव:

महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 को उदयपुर के कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ था। वो सिसोदिया राजवंश के वंशज थे, जिसका इतिहास मेवाड़ की वीरता और स्वतंत्रता की लौ से जुड़ा हुआ है। उनके पिता महाराणा उदय सिंह थे, जिन्होंने मुगल साम्राज्य के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए जीवन भर संघर्ष किया। इसी परिवेश में महाराणा प्रताप ने बचपन से ही तलवार चलाना, घुड़सवारी करना, और युद्धनीति सीखी। उनमें वीरता, धैर्य, और दृढ़ता का गुण कूट-कूट कर भरा हुआ था।

मेवाड़ का राजा, प्रजा का रक्षक:

महाराणा प्रताप 1572 में मेवाड़ के सिंहासन पर बैठे। उस समय मुगल साम्राज्य का विस्तार चरम पर था, और सम्राट अकबर भारत के हर राज्य को अपने अधीन करने का सपना देख रहा था। लेकिन महाराणा प्रताप ने हार मानने से इनकार कर दिया। वो मेवाड़ की स्वतंत्रता और राजपूत गौरव की रक्षा के लिए डटकर खड़े हुए। उनके राज्य में गरीबों, किसानों, और हर वर्ग के लोगों को सम्मान और न्याय मिलता था। वो एक प्रजा-प्रेमी राजा थे, जो अपने लोगों की खुशहाली के लिए हर पल तत्पर रहते थे।

वीरता का पर्याय, युद्ध का माहिर:

महाराणा प्रताप को एक अद्वितीय योद्धा माना जाता है। उनकी तलवार चलाने की कला और घोड़ों पर सवार होकर युद्ध करने का तरीका बेजोड़ था। वो छापामार युद्ध में माहिर थे, जिसके जरिए वो मुगल सेना को लगातार परेशान करते रहते थे। वो अरावली की पहाड़ियों को अपने किले की तरह इस्तेमाल करते थे, और वहां से मुगलों पर घात लगाते थे। हल्दीघाटी का युद्ध इसी रणनीति का जीता-जागता उदाहरण है, जहां उन्होंने भारी संख्या में मौजूद मुगल सेना को हिलाकर रख दिया था।

नेतृत्व का प्रतीक, प्रेरणा का स्रोत:

महाराणा प्रताप सिर्फ एक योद्धा नहीं थे, बल्कि एक महान नेता भी थे। उन्होंने अपने पूरे जीवन में राजपूतों को एकजुट किया और मुगलों के खिलाफ संघर्ष को आगे बढ़ाया। उनके साहस, दृढ़ता, और निष्ठा ने राजपूतों को लगातार प्रेरित किया। वो अपने लोगों के लिए एक प्रेरणा थे, जो उनकी वीरता की गाथा को पीढ़ियों तक गाते रहे।

स्वतंत्रता की ज्वाला, अजेय शौर्य की गूंज:

महाराणा प्रताप मुगलों को हरा भले ही न सके, लेकिन उन्होंने उनके सामने कभी घुटने नहीं टेके। उनका जीवन स्वतंत्रता की ज्वाला और अजेय शौर्य का प्रतीक बन गया। उन्होंने ये साबित कर दिया कि कितने ही मुश्किलों के बाद भी, हार कभी स्वीकार नहीं की जानी चाहिए। उनके संघर्ष ने भारत के इतिहास में एक अविस्मरणीय अध्याय लिख दिया, जो आने वाली पीढ़ियों को आज भी प्रेरित करता है।

2. बचपन का तपस्या, सत्ता का सफर

अरावली की पहाड़ियां, मेवाड़ की ढाल
अरावली की पहाड़ियां, मेवाड़ की ढाल

महाराणा प्रताप की कहानी महज युद्ध और विजय की नहीं, बल्कि उनके साहसी बचपन और धीरे-धीरे सत्ता तक पहुंचने के अद्भुत सफर की भी है। आइए देखें वो कैसे एक बालक से वीर योद्धा बने, और मेवाड़ के राजा के रूप में कैसे मुगलों के खिलाफ उठ खड़े हुए।

बचपन का तपस्या:

प्रताप का जन्म कुंभलगढ़ के दुर्ग में हुआ था, जो मेवाड़ की ताकत और सुरक्षा का प्रतीक था। उनका बचपन शाही महल में खेल-खिलौनों के बीच नहीं, बल्कि तपस्या और कठोर प्रशिक्षण में बीता। तलवार चलाना, घुड़सवारी करना, और युद्धनीति सीखना उनके रोजमर्रा का हिस्सा था। वो अरावली की पहाड़ियों में घूमते-फिरते प्रकृति से वीरता और दृढ़ता सीखते थे। धर्म, परंपरा, और स्वतंत्रता के मूल्य उनके मन में बचपन से ही गढ़े गए थे।

नेतृत्व के शुरुआती कदम:

प्रताप के पिता महाराणा उदय सिंह ने उन्हें युद्ध के मैदान में ही अनुभव दिलाना शुरू कर दिया था। युवा प्रताप ने मुगलों के खिलाफ कई छोटे युद्धों में भाग लिया और अपनी वीरता साबित की। धीरे-धीरे उन्हें मेवाड़ के अंदरूनी मामलों में भी जिम्मेदारी दी जाने लगी। वो लोगों की समस्याओं को सुनते थे, न्याय करते थे, और राज्य का प्रबंधन सीखते थे। उनके नेतृत्व कौशल को देखते हुए सभी को यकीन हो गया था कि वो एक महान राजा बनेंगे।

मुगलों के साथ टकराव:

उस समय भारत में मुगल साम्राज्य का परचम लहरा रहा था। सम्राट अकबर ने मेवाड़ को भी अपने अधीन करने का प्रयास किया। लेकिन महाराणा उदय सिंह ने हार मानने से इनकार कर दिया। इसी दौरान प्रताप हल्दीघाटी के युद्ध से पहले मुगलों के साथ हुए एक महत्वपूर्ण युद्ध में शामिल हुए, जिसे “मोकुलगढ़ का युद्ध” कहा जाता है। इसमें प्रताप ने मुगल सेना को भारी नुकसान पहुंचाया और खुद भी घायल हो गए। मोकुलगढ़ का युद्ध भले ही जीत नहीं हुई, लेकिन इसने मुगल साम्राज्य को ये संदेश दे दिया कि मेवाड़ की आवाज दबाई नहीं जा सकती।

सत्ता का सफर और मुगलों की चुनौती:

महाराणा उदय सिंह के देहांत के बाद 1572 में प्रताप मेवाड़ के सिंहासन पर बैठे। उनकी सत्ता का सफर आसान नहीं था। मुगल साम्राज्य हर तरफ से उन्हें घेरने की कोशिश कर रहा था। लेकिन प्रताप हार मानने वाले नहीं थे। उन्होंने मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अपना पूरा जीवन अर्पित कर दिया। अब आइए देखें कि कैसे उन्होंने मुगलों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और मेवाड़ की शान को बचाए रखा।

इस तरह, महाराणा प्रताप का बचपन से लेकर सत्ता तक का सफर हमें उनके दृढ़ संकल्प, नेतृत्व कौशल, और स्वतंत्रता के प्रति गहरे जुनून का प्रमाण है। उनकी कहानी आगे बढ़ने को प्रेरित करती है, और हमें यह सिखाती है कि कठिन परिस्थितियों में भी हार नहीं माननी चाहिए।

3. छापामार की कला, मेवाड़ का नया सपना

Chetak-Marana-Pratap
Chetak-Marana-Pratap

मुगल बादशाह अकबर की विशाल सेना के सामने, हल्दीघाटी के युद्ध के बाद, महाराणा प्रताप ने अपनी रणनीति बदल ली। वो जानते थे कि सीधे टकराव में मुगलों को हराना मुश्किल था। इसलिए उन्होंने छापामार युद्ध की कला को अपना लिया। वो अरावली की पहाड़ियों को अपने किले की तरह इस्तेमाल करते थे, और वहां से चुपचाप निकलकर मुगल सेना पर आक्रमण करते थे। उनकी वफादार साथी और उनका वीर घोड़ा चेतक इस लड़ाई में उनकी सबसे बड़ी ताकत बन गए।

छापामार की कला में माहिर:

प्रताप की सेना छोटी थी, लेकिन फुर्तीली और अनुभवी थी। वो अंधेरे की आड़ में मुगल चौकियों पर हमला करते, उनके अनाज और हथियार छीन लेते, और पहाड़ियों में गायब हो जाते थे। मुगल सेना उन्हें ढूंढ ही नहीं पाती थी। इस तरह वो लगातार मुगलों को परेशान करते रहते थे, और उनकी शक्ति कमजोर करते जाते थे। उनकी रणनीति इतनी सफल थी कि मुगल बादशाह अकबर को भी उनका सामना करने में काफी पसीना आता था।

वफादार साथी, वीरता का गवाह:

प्रताप के जीवन में उनके वफादार साथियों का भी बहुत बड़ा योगदान रहा। इनमें से कई नाम इतिहास में अमर हो गए हैं, जैसे भामाशाह, जो प्रताप की सेना का वित्तीय संकट दूर करने के लिए अपना सारा धन दान कर दिया था। लेकिन सबसे प्रसिद्ध थे उनके वीर घोड़े, चेतक। चेतक न सिर्फ एक घोड़ा, बल्कि प्रताप का सबसे करीबी साथी था। वो उनके साथ युद्ध के मैदान में हर खतरे का सामना करते थे। हल्दीघाटी के युद्ध में भी चेतक ने अकबर के हाथी को घायल कर दिया था, लेकिन खुद भी बुरी तरह घायल हो गया था। प्रताप ने चेतक को बचाने के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की, जिससे उनकी वीरता और निष्ठा का सबूत मिलता है।

अरावली की पहाड़ियां, मेवाड़ की ढाल:

प्रताप ने अरावली की पहाड़ियों को अपनी ताकत का आधार बनाया। ये पहाड़ियां उनके लिए प्राकृतिक किले की तरह थीं, जहां मुगलों का पहुंचना मुश्किल था। वो इन पहाड़ियों में छिपकर गुप्त ठिकाने बनाते थे, और वहां से मुगलों पर हमले करते थे। ये पहाड़ियां उन्हें मुगलों की नजरों से भी बचाती थीं, और उन्हें मेवाड़ में अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने का मौका देती थीं।

मेवाड़ का पुनर्निर्माण, एक नई शुरुआत:

हालांकि मुगलों ने मेवाड़ के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लिया था, लेकिन प्रताप हार मानने वाले नहीं थे। वो लगातार मेवाड़ के पुनर्निर्माण की कोशिश करते रहे। उन्होंने नए गांव बसाए, किसानों को मदद दी, और व्यापार को बढ़ावा दिया। उनकी कोशिशों से मेवाड़ फिर से उन्नति करने लगा, और मुगलों के दबाव के बावजूद वहां की संस्कृति और परंपराएं जीवित रहीं।

इस तरह, छापामार युद्ध, वफादार साथी, और अरावली की पहाड़ियों की मदद से महाराणा प्रताप ने न सिर्फ मुगलों का सामना किया, बल्कि मेवाड़ को फिर से खड़ा करने का सपना भी पूरा किया। उनकी कहानी हमें यह सिखाती है कि हार से कभी घबराना नहीं चाहिए, और अपनी मिट्टी की रक्षा के लिए हर संभव प्रयास करने चाहिए।

4. हल्दीघाटी का युद्ध: शौर्य की गूंज, प्रतिरोध का प्रतीक

हल्दीघाटी का युद्ध
हल्दीघाटी का युद्ध

दोस्तों, अब बात करते हैं इतिहास के एक ऐसे पन्ने की, जहां वीरता का तूफान उठा था, जहां छोटी सी सेना ने बड़ी सेना को चुनौती दी थी, और जहां महाराणा प्रताप की शूरवीरता ने पूरे भारत को हिलाकर रख दिया था। वो है हल्दीघाटी का युद्ध, एक ऐसा मोड़ जिसने मेवाड़ की लड़ाई को ही नहीं, बल्कि पूरे भारत की स्वतंत्रता की ज्वाला को भी जगाया।

हल्दीघाटी का मैदान, शौर्य का संग्राम:

1576 का साल था, जब अकबर की विशाल मुगल सेना ने मेवाड़ की सीमाओं पर तूफान मचाया। प्रताप जानते थे कि मुगलों से सीधे टकराव का मतलब हार हो सकता है। लेकिन वो हार मानने वाले नहीं थे। उन्होंने मेवाड़ की शान और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अरावली की पहाड़ियों के पास हल्दीघाटी के मैदान में मुगलों का सामना करने का फैसला किया। उनकी सेना छोटी थी, लेकिन उनके हौसल बुलंद थे।

बहादुरी का तूफान, अजेय संघर्ष:

हल्दीघाटी का युद्ध एक ऐसा संग्राम था, जहां हर तरफ तलवारों की झनकार और वीरों की गर्ज सुनाई देती थी। प्रताप सिंह खंजर और तलवार लेकर सबसे आगे लड़ रहे थे। वो मुगल सेना को चीरते हुए आगे बढ़ रहे थे, मानो उनके रास्ते में कोई नहीं रोक सकता। उनकी वीरता ने उनकी सेना का मनोबल बुलंद रखा, और वो मुगलों पर टूट पड़े। उनके घोड़े चेतक ने भी युद्ध में अद्भुत शौर्य दिखाया, और कई मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया।

रणनीति और हार-जीत का खेल:

हालांकि प्रताप की सेना छोटी थी, लेकिन उनकी रणनीति बेहतरीन थी। उन्होंने अरावली की पहाड़ियों का फायदा उठाया और मुगलों पर घात लगाते रहे। वो छापामार की कला में माहिर थे, और मुगलों को धोखा देकर उन्हें भारी नुकसान पहुंचाते थे। लेकिन अकबर की सेना भी कम नहीं थी। उनकी संख्या ज्यादा थी, और उनके पास हथियार भी बेहतर थे। अंततः हल्दीघाटी का युद्ध एक निर्णायक विजय नहीं मिली, लेकिन प्रताप ने ये साबित कर दिया था कि वो हार मानने वाले नहीं हैं।

छवि का गौरव, प्रतिरोध का प्रतीक:

हालांकि हल्दीघाटी का युद्ध एक निर्णायक जीत नहीं था, लेकिन प्रताप के शौर्य और नेतृत्व ने उन्हें एक महान योद्धा और स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में स्थापित कर दिया। उनकी वीरता की कहानियां पूरे भारत में फैल गईं, और वो लाखों लोगों के लिए प्रेरणा बन गए। उनकी लड़ाई सिर्फ मेवाड़ की स्वतंत्रता के लिए नहीं थी, बल्कि भारत की संस्कृति और परंपराओं की रक्षा के लिए भी थी। उन्होंने ये साबित कर दिया था कि हार से ज्यादा महत्वपूर्ण है हार न मानने की भावना, और यही भावना आने वाली पीढ़ियों को भी प्रेरित करती रही।

5. हल्दीघाटी के बाद, गौरव का सफर, विरासत का चिराग

हल्दीघाटी का युद्ध भले ही निर्णायक जीत नहीं रहा, लेकिन महाराणा प्रताप की जिद कम न हुई। वो हार मानकर नहीं बैठे, बल्कि मुगलों के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखी। वो छापामार युद्ध की अपनी रणनीति पर टिके रहे, और लगातार मुगल चौकियों पर हमला करते रहे। उन्होंने मेवाड़ के कई खोए हुए हिस्सों को वापस जीत लिया, और अकबर को ये साबित कर दिया कि उन्हें हराना आसान नहीं होगा।

कला, साहित्य और विरासत का योगदान:

प्रताप सिर्फ एक योद्धा ही नहीं थे, बल्कि कला और साहित्य के भी प्रेमी थे। उन्होंने मेवाड़ में कई मंदिरों और कलात्मक भवनों का निर्माण करवाया, जो आज भी राजस्थान की शान हैं। उनकी वीरता को गीतों और कविताओं में गाया गया, और वो राजस्थान की संस्कृति का एक अहम हिस्सा बन गए। उन्होंने मेवाड़ में शिक्षा को भी बढ़ावा दिया, और कई स्कूलों और पाठशालाओं का निर्माण कराया।

राजपूत वीरता का प्रतीक:

महाराणा प्रताप अपने साहस, दृढ़ संकल्प, और स्वतंत्रता के प्रति जुनून के लिए पूरे भारत में जाने जाते हैं। वो राजपूत वीरता के प्रतीक के रूप में आज भी लोगों के दिल में जिंदा हैं। उनकी कहानी ये बताती है कि हार से ज्यादा महत्वपूर्ण है लड़ाई का हौसला, और अपने आदर्शों के लिए डटे रहने की ताकत। वो हमें यह भी सिखाते हैं कि देशभक्ति और बलिदान की भावना ही राष्ट्र को मजबूत बनाती है।

विरासत का चिराग:

आज, हजारों साल बाद भी, महाराणा प्रताप की कहानी भारत के लोगों को प्रेरित करती है। उनके किलों, मंदिरों, और कहानियों को आज भी संजो कर रखा गया है। वो राजस्थान की संस्कृति का एक अभिन्न अंग हैं, और उनकी विरासत युवा पीढ़ी को देशभक्ति और बलिदान की भावना जगाती है। वो हमें याद दिलाते हैं कि सच्ची ताकत हथियारों में नहीं, बल्कि हौसले और सच्चाई में होती है।

6. समापन: वीरता का प्रताप, इतिहास का गौरव

महाराणा प्रताप इतिहास में सिर्फ एक राजा नहीं, बल्कि एक प्रेरणा, एक जुनून और एक आदर्श हैं। उनकी कहानी हार मानने की नहीं, बल्कि हौसले से लड़ने की है। उन्होंने ये साबित कर दिया कि छोटी सी सेना भी दृढ़ संकल्प के साथ बड़ी ताकत को चुनौती दे सकती है।

भारतीय इतिहास में प्रताप का महत्व:

  • स्वतंत्रता की ज्वाला: प्रताप ने मुगलों के खिलाफ अपनी लड़ाई सिर्फ मेवाड़ के लिए नहीं लड़ी, बल्कि उन्होंने पूरे भारत की आवाज उठाई। उनकी वीरता ने लाखों लोगों को प्रेरित किया और स्वतंत्रता की ज्वाला को जगाया।
  • राजपूत वीरता का प्रतीक: प्रताप राजपूत शूरवीरता के प्रतीक हैं। उनका साहस, दृढ़ संकल्प और बलिदान की भावना आज भी युवाओं को प्रेरित करती है। वो भारत के इतिहास में एक अमर अध्याय हैं।
  • छापामार युद्ध की कला: प्रताप ने छापामार युद्ध की कला को बखूबी अपनाया और मुगलों को परेशान करते रहे। उनकी रणनीति ने भविष्य के कई युद्धों को प्रेरित किया।

आने वाली पीढ़ियों पर प्रभाव:

  • प्रेरणा का स्रोत: प्रताप की कहानी आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनका हौसला, दृढ़ संकल्प और बलिदान की भावना हमें सिखाती है कि किसी भी मुश्किल का सामना डटकर करना चाहिए।
  • राष्ट्रभक्ति का पाठ: प्रताप हमें राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाते हैं। वो हमें सिखाते हैं कि अपने देश के लिए लड़ना और बलिदान देना कितना महत्वपूर्ण है।
  • संस्कृति का संरक्षक: प्रताप अपनी संस्कृति के संरक्षक थे। उन्होंने कला, साहित्य और शिक्षा को बढ़ावा दिया, और उनकी विरासत राजस्थान की संस्कृति का अहम हिस्सा है।

लोकप्रिय संस्कृति में चित्रण:

प्रताप की कहानी ने फिल्मों, नाटकों और गीतों को भी प्रेरित किया है। उनके जीवन पर कई फिल्में और टीवी सीरियल बने हैं, जो उनकी वीरता को जीवंत करते हैं। उनकी कहानी लोकप्रिय संस्कृति में हमेशा जिंदा रहेगी।

आज की प्रासंगिकता:

आज के समय में भी प्रताप की कहानी बेहद प्रासंगिक है। उनकी दृढ़ता, हौसला और बलिदान की भावना हमें भ्रष्टाचार, अन्याय और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा देती है। उनकी कहानी हमें ये भी सिखाती है कि हमेशा सच्चाई के रास्ते पर चलना चाहिए, और किसी भी दबाव के सामने झुकना नहीं चाहिए।

महाराणा प्रताप एक इतिहास नहीं, बल्कि एक जीवंत संदेश हैं। उनकी कहानी हमें पीढ़ियों तक प्रेरणा देती रहेगी और भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग बनी रहेगी।

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